विश्व स्वास्थ्य संगठन के आँकलन के अनुसार हर वर्ष लगभग 35 अरब जूते फेंक दिए जाते हैं वहीं 1.5 अरब लोग पैर के इन्फैक्शन की दर्द को झेलते हैं और ऐसा उनके असुरक्षित नंगे पैर रहने के कारण से होता है। कितने ही सारे जूते हर साल हम सब भी फेंकते हैं। अक्सर हमारे जूतों के तले मजबूत रहते हैं मगर ऊपर के कवर फट जाते हैं या घीस जाते हैं। हम उन्हें या तो किसी को दे देते या फेंक देते हैं। कभी-कभी कुछ दिनों तक रिपेयर कर काम चलाते हैं लेकिन जल्द ही नये जूते खरीदकर पुराने को फेंक देते हैं। मगर इन जूतों को नया रुप देकर, इसकी डिजाईन को बदल कर यदि फिर से किसी जरुरतमंद के लिए पहनने लायक बना दिया जाए तो निश्चित रुप से आइडिया का आप स्वागत करेंगे और अपना भी सहयोग देना चाहेंगे।
धावक श्रीयंस भंडारी और रमेश धामी का उद्यम “ग्रीनसोल” एक ऐसा ही सामाजिक उपक्रम है। पुराने जूतों की मरम्मत कर उसे फिर से पहनने लायक चप्पल बना कर उन ग्रामीणों और स्कूली बच्चों में बाँटते है जो नंगे पाँव रहने को मजबूर होते हैं। इसी नेक ख्याल के साथ शुरु हुए इस उद्यम में कई लोगों को रोजगार तो मिले ही साथ ही साथ यह वातावरण के दृष्टिकोण से भी लाभदायक है। एक जूते के निर्माण में 65 अलग-अलग भागों को 360 चरणों में बनाया जाता है जिससे 30 किलोग्राम कार्बन डाईऑक्साइड निकलता है जिससे एक 100 वाट का बल्ब एक हफ्ते तक जलाया जा सकता है। इस कार्बन उत्सर्जन की बचत के साथ ही साथ यह ऐसे जूतों से भूमि पर फैलने वाले कचरे से भी बचाता है।
12 वर्षीय श्रीयंस और 23 वर्षीय रमेश में समानताएँ तो बहुत कम है पर उन दोनों का मैराथन धावक होना और “ग्रीनसोल” की स्थापना के लिए दोनों के एक समान विचार का होना एक नये आगाज़ की शुरुआत थी। एक ओर श्रीयंस उदयपुर, राजस्थान के एक व्यापारिक पृष्ठभूमि वाले संभ्रांत परिवार से हैं और मुम्बई के जय हिंद काॅलेज से बी.बी.ए. की पढ़ाई की और फिर अमेरिका से एम.बी.ए.। वहीं दूसरी ओर रमेश कुमाँऊ, गढ़वाल उतराखण्ड के एक छोटे से गाँव से हैं। 10 साल की उम्र में घरेलू परेशानी की वजह से घर छोड़ दिया और उत्तर भारत के कई हिस्सों में रहे और अपनी जीविका के लिए कई छोटे-मोटे काम किए। फिल्मों में काम करने का सपना लिए रमेश 2 साल बाद मुम्बई की ओर रुख किए। यहाँ उन्हें फुटपाथ पर सोना होता था और कई बार भूखे रहना होता।
रमेश को नशे की भी लत लग गई थी और वे छोटे-छोटे क्राईम भी करने लगे थे। फिर वे “साथी” NGO के सम्पर्क में आए जहाँ उन्होनें पढ़ना-लिखना सीखा और वहीं से उन्हें स्पोर्टस में जाने की प्रेरणा मिली और इस प्रकार श्रीयंस भंडारी और रमेश धामी की मुलाकात प्रियदर्शनी पार्क में हुई। यहाँ वे मैराथन चैंपियन सैवियो डिसूजा से ट्रेनिंग लिया करते थे।
रमेश सैवियो डिसूजा के असिसटेंट के रुप में काम करने लगे, जहाँ उन्हें 4,500 रुपये महीने के मिलते थे। इस छोटी सी आय से पैसे बचा कर रमेश किसी तरह एक मँहगा स्पोर्टस शूज खरीदा। मगर कुछ महीने बाद ही जूते का उपरी हिस्सा खराब हो गया। मरम्मत करने के बाद भी वह ज्यादा नहीं चला लेकिन उसके सोल फिर भी मजबूत थे। रमेश ने जूते को थोड़ा नवीनीकरण कर चप्पल में बदल लिया। इस तरह रमेश को पुराने जूतों का चप्पल और सैंडिल के रुप में एक नये इस्तेमाल का आइडिया आया।
एथलिट होने के कारण श्रेयांस और रमेश हर साल किलोमीटर की दौड़ लगाते थे। ऐसे में दोनों के ही 4 से 5 मँहगे जूते हर साल खराब हो जाया करते थे। जब रमेश ने अपना आइडीया श्रेयांस को बताया तो यह उसे भी बहुत पसंद आया। और फिर दोनों ने “ग्रीनसोल” की स्थापना की।
साल 2014 में श्रेयांस और रमेश ने अपने इस बिजनेस माॅडल को जय हिन्द काॅलेज में एक बिजनेस प्रतियोगिता “नेशनल आंत्रपेन्योर नेटवर्क” (NEN) में प्रस्तुत किया। उनके प्रोजेक्ट की काफी सराहना हुई। इससे प्रोत्साहित होकर दोनों ने चप्पल के निर्माण के बारे में रिसर्च किया और इसकी कलाएं सीखी और अपने इस माॅडल को और बेहतरीन बनाया। उन्होंने कई प्रतियोगिताओं में अपने माॅडल को पेश किया।
उनके इस आइडिया ने लाखों रूपये इनाम स्वरुप जीते। इस पैसे में श्रीयंस ने अपने घर से और कुछ पैसे डोनेशन आदि से मिला कर 10 लाख रुपये में “ग्रीनसोल” एक प्राईवेट लिमिटेड कम्पनी के रुप में लाॅन्च किया। 2014 में जूते चप्पल बनाने वाली मुम्बई की एक परम्परागत काॅलोनी “ठक्कर बप्पा काॅलोनी” में एक 500 स्क्वायर फीट के किराये के कमरे में पाँच कामगारों के साथ पुराने जूतों से चप्पल सैंडिल बनाना शुरु किया।
इसी बीच श्रीयंस मास्टर डिग्री लेने के लिए अमेरिका चले गये। इस दौरान रमेश ने बड़े और स्थापित जूते चप्पल निर्माता कम्पनियों में घूम-घूम कर उसकी तमाम बारीकियों को सीखा। श्रीयंस “ग्रीनसोल” के मार्केटिंग का कार्यभार संभालते हैं जबकी रमेश निर्माण, डिजाईन और रिसर्च आदि देखते हैं। आज इनकी एक बड़ी टीम है।
“ग्रीनसोल” ने अबतक 52,000 चप्पलों और सैंडल्स का वितरण महाराष्ट्र और गुजरात के जरुरतमंदों लोगों के बीच कर चुका है और 2017 के अंत तक एक लाख जोड़ी डोनेट करने का लक्ष्य है। इस कार्य में लोग भी बढ़-चढ़ कर उत्साह दिखा रहे हैं।
आज एक्सिस बैंक, इण्डियाबुल्स, टाटा पावर और DTDC जैसे और भी कई बड़े कार्पोरेटस इनकी मुहीम से जुड़े हैं। इसके आलावा कई संस्थाएं हैं जो इनके लिए जूते इक्कठे करने में मदद करते हैं। वे जूतों की मरम्मती के लिए पैसे देते हैं और फिर उन्हें जरुरतमंदों को दान कर देते हैं।
एक पुराने जूते से नए चप्पल बनाने में एक कामगार को लगभग 60 मिनट का समय लगता है मगर “ग्रीनसोल” में तकनीक और व्यवस्था के इस्तेमाल से प्रतिदिन 800 जोड़ी का उत्पादन संभव है। यदि जूतों में थोड़ी बहुत मजबूती रहती है तो उसे स्पोर्टस आॅथरिटी आॅफ इण्डिया (SAI) में दे दिया जाता है और वहाँ से पुराने जूते लिए जाते हैं। जिस गाँव में चप्पल देने होते हैं वे पहले वहाँ का सर्वे कर उनकी जरुरत और साईज को समझ कर जूतों से चप्पल और सैंडल बनाते हैं। ग्रीनसोल की रिटेलिंग भी होती है जहाँ से खुद के लिए या दान देने के लिए चप्पल ख़रीदे जा सकते हैं। आॅनलाईन भी ग्रीनसोल उपलब्ध है। पुराने सभी प्रकार के फूटवियर का इस्तेमाल यहाँ होता है सिर्फ बच्चों और ऊँचे एड़ी वाली सैंडल्स को छोड़ कर। इनके पास इंडस्ट्रियल आइडिया और डिजाइन के दो पेटेंट (D262161और D262162) भी हैं। रतन टाटा और बराक ओबामा जैसे दिग्गजों से सराहना प्राप्त कर दोनों में आत्मविश्वास और जगा है कि वे सही राह पर हैं। जल्द ही वे दिल्ली और बैंगलोर में अपनी ईकाइ बैठाने का प्लान कर रहे हैं। वर्तमान में “ग्रीनसोल” का टर्नओवर 1 करोड़ का है।
श्रीयंस ने केनफ़ोलिओज़ से खास बातचीत में बताया कि जल्द ही वे सेलिब्रिटिज के स्लिपर्स को ऑनलाइन ऑक्शन के माध्यम से लोंगो के लिए लाएंगे।
श्रीयंस अपने जैसे युवाओं को सफलता की खातिर संदेश देते हुए कहते हैं, “जब भी कोई आइडिया हो तो उसके हर अगले स्टेप पर बढ़ते रहो। अपने आस-पास और उस क्षेत्र में सफल लोंगो से बात करो और आइडिया को इम्पलीमेंट करो।”
समाज की मुख्यधारा से पीछे छूट गये हमवतनों की एक छोटी मगर निहायत ही जरुरी आवश्यता को पूरा कर श्रेयांस और रमेश ने उन सब के एक दर्दनाक कठिनाई को दूर किया है। ऐसे कई छोटे प्रयास हो सकते हैं जिनसे समाज के वंचित वर्ग की समस्याओं का निराकरण किया जा सकता है और उन्हें दूर कर उनके जीवन स्तर को बेहतर किया जा सकता है। इन दोनों मित्रों का आइडिया और उसका क्रियान्यवन हर पढ़े लिखे नौजवानों को प्रेरित करता है कि वे अपने आसपास के पिछड़े लोंगों की मदद करने के लिए आगे आएँ।