रोज़ 30-40 रुपए का गुटखा खा जाना एक आम बात है। लोग स्वाद-स्वाद में लगी इस आदत के कब गुलाम बन जाते हैं, उन्हें पता ही नहीं चलता। ऐसे में कितना भी चाहें पर वे अपनी इस आदत को छोड़ नहीं पाते हैं और आगे चलकर कई भयावह बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। लेकिन राजस्थान के एक साधारण व्यक्ति ने नशा छोड़, गुटखा के पैसों से वो कर दिखाया जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी।
सहण, तहसील नैनवाँ, जिला बून्दी, राजस्थान के रहने वाले महावीर प्रसाद पांचाल ने गुटखा खाना छोड़, उन पैसों से 1000 पौधे लगा यह साबित कर दिया कि ठान लो तो कुछ भी मुश्किल नहीं।
आज वह लगातार पौधारोपण कर रहे हैं। उन्होंने एक हनुमान वाटिका बनाई है, जिसमें 61 प्रजातियों के 1000 पौधे लहलहा रहे हैं। आइए सुनते हैं उनकी कहानी, उन्हीं की ज़ुबानी…
मैं महावीर प्रसाद पांचाल सहण का रहने वाला हूँ। जिला मुख्यालय से 60 किलोमीटर की दूरी पर मेरा गाँव है। पेड़-पौधों से मुझे बचपन से ही लगाव था। बचपन में जब हम घर बनाना खेलते थे तो मेरा घर सबसे सुंदर होता था। मैं मेरे घर को कनेर, नीम और कुआडिया की टहनियों से सजाता था। बचपन से ही मेरा सपना था कि मैं खूब पेड़ लगाऊं। जब मैं बस से बून्दी या कोटा जाता तो खिड़की के पास बैठकर पर्वतमाला को निहारा करता था। बारिश के दिनों में आम, जामुन, इमली के बीज कहीं भी लगा देता था। हालांकि ये कभी बड़े नहीं हुए, क्योंकि मैं गलत जगह पर इन्हें लगाता था। खैर, बचपन कब निकल गया पता ही नहीं चला।
पढ़ाई-लिखाई और बाद में घर की जिम्मेदारियों में यह शौक दब गया। पढ़ाई के बाद मैंने गाँव में ही किराने की दुकान खोल ली। उसके बाद 2010 में मैंने पास के कस्बे देई में ऑटो पार्ट्स की दुकान खोली और चलाने लगा। 20 जून 2013 की बात है, मैं दुकान पर फुर्सत में बैठा हुआ था, अतीत की स्मृतियां मेरे सामने आ गई।
मैंने सोचा आधी उम्र बीत गई। जिंदगी की भागा दौड़ी में पेड़-पौधों का शौक पीछे छूट गया। उसी समय मेरे एक मित्र पीताम्बर शर्मा दुकान पर आए। मैंने मेरे शौक के बारे में उन्हें बताया तो उन्होंने गाँव में स्थित हनुमान जी के मंदिर की बेकार पड़ी 100 बीघा जमीन पर पौधारोपण की सलाह दी।
मन ने गवाही दी, लेकिन इतने बड़े स्तर पर पौधारोपण के लिए जेब इजाज़त नहीं दे रही थी। दूसरे दिन, मेरे एक मित्र लादू लाल सेन जो दुर्व्यसन मुक्ति मंच के नाम से एनजीओ चलाते थे, किसी काम से दुकान पर आए। मेरे मुँह में गुटखा भरा हुआ था और मैं उनकी बातों का जवाब अजीब सी आवाज में दे रहा था। उन्होंने मुझे गुटखा छोड़ने की सलाह दी और कहा कि इन पैसों को काजू-बादाम खाने में खर्च करो या घर खर्च में लगाओ। क्या मिलता इन्हें खाने से?
उनके जाने के बाद मैंने सोचा कि बात तो सही है। क्या मिलता है गुटखा खाने से। क्यों न गुटखा पर खर्च होने वाली राशि पेड़-पौधे पर लगाई जाए। उन दिनों मैं प्रतिदिन 30-40 रुपए का गुटखा खा जाया करता था। मुझे दिशा मिल चुकी थी। दूसरे दिन, मैं दृढ़ निश्चय के साथ हनुमान जी के मंदिर पहुँचा। हाथ में कुदाली और कुल्हाड़ी थी। वहाँ एक सौ बीघा ज़मीन है जो अंग्रेजी बबूल की झाड़ियों से भरी पड़ी थी।
मैंने उस वर्ष लगभग 2 बीघा ज़मीन से अंग्रेजी बबूल साफ़ किया और उस जगह को हनुमान वाटिका का नाम दिया। उसके बाद मैं सरकारी नर्सरी से पौधे खरीदकर लाया और पौधारोपण किया।