चंपारण सत्याग्रह के लगभग 105 साल बाद बिहार में नील की खेती एक बार फिर लौट रही है। ब्रिटिश हुकूमत मैं नील की खेती जुलुम और शोषण का प्रतीक बन गया था। लेकिन बदले हालात में शिक्षकों को समृद्धि के लिए इसकी खेती शुरू करने का मौका मिलेगा। कृषि विज्ञान केंद्र नील की खेती के लिए चाहत रखने वाले किसानों को पीपराकोठी नील के पौधे उपलब्ध कराएगा। सरकार ने केरल की मील बनाने वाली कंपनी से समझौता करने के बाद कंपनी लगभग 7 किलो रुपए के हिसाब से नील के पौधे की सूखी पत्तियां खरीदेगी। आज के पी डी के किसानों के लिए नील की खेती बेहद रोमांचकारी होगा।
नील की बढ़ती मांग को देखते हुए भारत सहित दूसरे देशों में भी नील की खेती एक बार फिर शुरू हो रही है। बाजार के रुझान ने ही किसानों को नील की खेती करने के लिए अपनी और आकर्षित किया है। बता दें कि नील के पौधों की जड़ की गांठों में रहने वाले बैक्टीरिया वायुमंडलीय नाइट्रोजन को नाइट्रेट का रूप देकर मिट्टी की उत्पादकता को संरक्षित करते हैं। किसान इसका इस्तेमाल जैविक खाद के रूप में करते हैं।
केरल की नील खरीदने वाली कंपनी ने बिहार के भोजपुर में सबसे पहले नील की खेती का प्रयोग कराया है। भोजपुरी में प्रयोग सफल होने पर दूसरे जिलों में भी अगले वर्ष नील की खेती शुरू हो सकती है। कंपनी इसके लिए गया, पटना और चंपारण के कुछ किसानों से संपर्क साध रही है।
बता दें कि मार्च के आखिर या अप्रैल के शुरूआत में ही नील के बीज बोए जाते हैं। फसल की तीन कटिंग होने की वजह से इसकी खेती में बेहद कम खर्च लगता है। बताया जाता है कि 90 से 100 दिनों के भीतर पहली कटिंग हो जाती है। जमीन से छह इंच छोड़ पौधों की कटिंग कर प्लास्टिक के तिरपाल पर बिछाकर एक दिन के लिए छोड़ दिया जाता है। अगले दिन डंडे से चोट मारने पर पत्तियां झड़ जाती हैं। फिर इन पत्तियों को सूखाकर कंपनी में भेज दिया जाता है। फिर 45-45 दिनों पर इसकी दूसरी और तीसरी कटिंग होती है।
पीपराकोठी केविके प्रमुख डॉ. अरविंद कुमार ने कहते हैं कि किसान नील की खेती करने के लिए इंटरेस्टेड होंगे तो पौधा उपलब्ध कराया जाएगा। किसान दुर्गा सिंह बताते हैं कि कमाई के दृष्टिकोण से नील की खेती बेहतर है। पौधा उपलब्ध कराने पर हम लोग इसकी खेती करेंगे। एक और किसान रविंद्र सिंह बताते हैं कि चंपारण सत्याग्रह के जुड़े नील की खेती किसानों को अच्छा आमदनी दे सकता है।